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Tuesday, February 16, 2010

हर एक बात पे कहेते हो तुम, के ‘तु क्या है ?’ - मिर्झा गालिब

हर एक बात पे कहेते हो तुम, के ‘तु क्या है ?’
तुम्ही कहो के ये अंदाझे गुफ्तगु क्या है ?
न शोले में ये करिश्मा न बर्क में ये यदा
कोइ बताओ की वो शोख-ए-तुंदको क्या है ?
ये रश्क है की वो होता है हम सुखन तुमसे
वगरना खौफ-ए-बद अमोझी-ए-अदू क्या है ?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफू क्या है ?
जला है जिस्म जहां दिलभी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ?
रगों में दौडते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंखही से न टपका तो फिर लहू क्या है ?
वोह चीझ जिसके लिये हमको हो बहुत अझीझ
सिवा बदा-ए-गुल फाम-ए-मुश्कबू क्या है ?
पिउं शराब अगर गमभी देख लूं दो-चार
ये शिशाओ कदहओ कूझाओ सुबू क्या है ?
रही न ताकत-ए-गुफतार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरझू क्या है ?
हुए है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में ‘गालिब’की आबरु क्या है ?

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